सनद रहे,
सबसे तीव्र होती है
दिए की लौ
बुझ जाने
से ठीक पहले।
नहीं आया बचाने
कोई तब
अब कुछ भी कह ले।
वो जिसने खो दिया
'सिंदूर'
तुमसे पूछती है
बिलखती एक 'शीतल' माँ
तुम्हें ललकारती है
तुम्हारी जान की क़ीमत
क्या हम सब से
बड़ी है?
बहन जो 'साक्षी' है
भाई की अर्थी की
उत्तराकांक्षी है, क्यों-
ना था तैनात कोई
ना किसी तक
चीख़ पहुँची?
ना आया पोंछने आँसू
ना मन में टीस पनपी?
तो बोली लौ-
अरे क्या पूछती हो
ये किससे पूछती हो?
जो अपनी माँ का मातम ना मनाए,
तुम्हारी आत्मा का
कैसे क्रन्दन वो सुनेगा ?
वो जिसके ताज के मोती
बने हों स्त्री के अश्रु,
वो आख़िर क्या
किसी का दुख हरेगा?
जो लाशों पर
तुम्हारी वोट मांगे,
उसे बतला दो
अब बस हो गया है।
ये कहते कहते
लौ ज़ोरों से फड़की
की जैसे ध्वस्त कर देगी
सभी कुछ ।
मगर बुझने से पहले
तीव्रता से जब जली
तो लौ ये बोली
चरम जब
आ गया है
समझ लो
अंत लौ का
आ गया है।
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