और हम रिश्तेदार हुए
अपने बचपन के आंगन में
दौड़ लगाते दिन भर
कब सोचा था तू जीती की मैं हारी।
घुटना छिलता मेरा, आँख छलकती तेरी।
कब सोचा था, मेरा मरहम लगाना
बनता है कि नहीं।
तेरे आँसू पोंछते, कब सोचा था
दूँगी अपने रुमाल का उल्हाना
सही समय आने पर ।
तेरी ग़लती की फटकार माँ से
जो मैंने पी ली, तो क्या।
तो क्या, कि जिद्द मेरी थी
और पापा को तूने मना लिया।
माँ के प्यार पापा के दुलार में
हिस्सा तो नहीं माँगते थे हम
बस जानते थे जितना तेरा है, उतना मेरा भी।
घर घर खेलते, देश विदेश भी घूम आते
एक दूसरे के लिए क़ीमती तोहफ़े लाते
कब जानते थे, क़द इनसे भी मापा जाता है।
मैं ले आती बाज़ार से हमारी मनचाही चीज़
बिना पलक झपकाए तू हक़ से कहती,
ला मुझे भी दे, मैं भी खाऊँगी।
फिर बड़े हो गए हम, बड़ी हो गयीं महत्त्वकांक्षाएँ
बूढ़े हो गए माँ बाप।विस्तृत हो गया परिवार ।
अब बातें उतनी ही नहीं होती जितनी होती हैं
कहीं विपरीत होते हैं अर्थ उनके
जो कहने वाला भी नहीं जानता ।
अपने बचपन के आंगन में
दौड़ लगाते दिन भर
कब सोचा था तू जीती की मैं हारी।
घुटना छिलता मेरा, आँख छलकती तेरी।
कब सोचा था, मेरा मरहम लगाना
बनता है कि नहीं।
तेरे आँसू पोंछते, कब सोचा था
दूँगी अपने रुमाल का उल्हाना
सही समय आने पर ।
तेरी ग़लती की फटकार माँ से
जो मैंने पी ली, तो क्या।
तो क्या, कि जिद्द मेरी थी
और पापा को तूने मना लिया।
माँ के प्यार पापा के दुलार में
हिस्सा तो नहीं माँगते थे हम
बस जानते थे जितना तेरा है, उतना मेरा भी।
घर घर खेलते, देश विदेश भी घूम आते
एक दूसरे के लिए क़ीमती तोहफ़े लाते
कब जानते थे, क़द इनसे भी मापा जाता है।
मैं ले आती बाज़ार से हमारी मनचाही चीज़
बिना पलक झपकाए तू हक़ से कहती,
ला मुझे भी दे, मैं भी खाऊँगी।
फिर बड़े हो गए हम, बड़ी हो गयीं महत्त्वकांक्षाएँ
बूढ़े हो गए माँ बाप।विस्तृत हो गया परिवार ।
अब बातें उतनी ही नहीं होती जितनी होती हैं
कहीं विपरीत होते हैं अर्थ उनके
जो कहने वाला भी नहीं जानता ।