Tuesday, April 2, 2019

और हम रिश्तेदार हुए


अपने बचपन के आंगन में
दौड़ लगाते दिन भर
कब सोचा था तू जीती की मैं हारी।
घुटना छिलता मेरा, आँख छलकती तेरी।
कब सोचा था, मेरा मरहम लगाना
बनता है कि नहीं।
तेरे आँसू पोंछते, कब सोचा था
दूँगी अपने रुमाल का उल्हाना
सही समय आने पर ।
तेरी ग़लती की फटकार माँ से
जो मैंने पी ली, तो क्या।
तो क्या, कि जिद्द मेरी थी
और पापा को तूने मना लिया।
माँ के प्यार पापा के दुलार में
हिस्सा तो नहीं माँगते थे हम
बस जानते थे जितना तेरा है, उतना मेरा भी।
घर घर खेलते, देश विदेश भी घूम आते
एक दूसरे के लिए क़ीमती तोहफ़े लाते
कब जानते थे, क़द इनसे भी मापा जाता है।
मैं ले आती बाज़ार से हमारी मनचाही चीज़
बिना पलक झपकाए तू हक़ से कहती,
ला मुझे भी दे, मैं भी खाऊँगी।
फिर बड़े हो गए हम, बड़ी हो गयीं महत्त्वकांक्षाएँ
बूढ़े हो गए माँ बाप।विस्तृत हो गया परिवार ।
अब बातें उतनी ही नहीं होती जितनी होती हैं
कहीं विपरीत होते हैं अर्थ उनके
जो कहने वाला भी नहीं जानता ।





Thursday, January 31, 2019

संगठन

ये महज़ हार न हो, अपने लिए
हम सबके लिए एक सबक़ हो
सबक कर्मनिष्ठा का
सबक़ एकजुट होने का
मौक़ा है अपने गरेबान में झाँकने का
ये सोचने का, कहाँ चूक रहे हैं हम
बजाय छींटाकशी के
समय अब भी है, बहुत कुछ बदलने का
अपना भविष्य रचने का,
इतिहास बदलने का
आवाम को बहलाने का नहीं
भागीदार बनाने का अब वक़्त है ।

Wednesday, January 30, 2019

जाने वो क्या था मुझमें
छू लिया जो तूने।
वो लम्हा जो तुझे दिया
मेरा था ही नहीं शायद।
तेरा बालपन, तेरी हठ
तेरे सवाल फ़िज़ूल के ,
मैं जानती थी
कि मौसमी हवाएं हैं
तेज़ रफ़्तार से मुझे
चूमने को बढ़ी आतीं,
हर बरस आती जाती हैं
मैं ढाँप कर ख़ुद को
किवाड़ मूँद लेती।
इस बार मन किया
लिपटने दूँ ख़ुद से इन्हें
तो खोल दी बाहें
बिना किसी आवरण के
कि चुरा ले तू ज़रा सी महक मेरी
और छोड़ जा मुझमें
नर्म एहसास अपनेपन का।
मग़रूर तू जब मुड़ा वापस
भूल गया किस रफ़्तार से बढ़ा था
मेरी ओर, और छू सका
बस इसलिए कि "मैंने चाहा"
चाहा तेरा, मुस्कुराना
जुदा होकर भी तू मुझमें बाक़ी है
पर मैं तेरा हासिल नहीं।