Thursday, June 20, 2013

Bahut ho chuka



बहुत हो चुका ये रूठना और मनाना
बहुत हुआ है तुमपे हक़ अपना जताना
बहुत जी चुकी तुम्हारे साए में छुपके
बहुत हो चुका पल पल ख़ुद को रुलाना

बहुत हो चुका पागल दिल का लगाना
हुआ बहुत है इश्क़ में यूँ ख़ुद को भुलाना
जिया जाए कैसे यूँ ख़ुद को भुला कर
मुनासिब नहीं अब यूँ ख़ुद को सताना

बहुत हो चुका तुम पे आंसू बहाना
अभी सूखी आँखें, अभी हमने जाना
जो बनकर खड़े हैं किनारा-ए-दरिया
उन्हीं को लुभाता है कश्ती का डूब जाना

हथेलियों पे दिल का, अब बस हुआ उठाना
और बस हुआ है तेरी ठोकरों से ज़ख्म खाना
बहुत हो चुकी हैं उफ़ ज़िल्लतें तुम्हारी
अब चूर हो चुका है टूट कर यह फ़साना

हमसे निगाह चुरा कर ग़ैरों से मिलाना 
शिकवा जताना हमपे, ग़ैर से मुस्कुराना
मैं ख़ूब बन चुकी हूँ तमाशा ज़माने भर में
क्या ख़ूब रंग लाया है वफाओं का अफ़साना