Tuesday, January 1, 2013

ख़िलाफ़।।




सोया हुआ है देर से, अब ओढ़ ले लिहाफ़ ।
ये युद्ध् लोक का है, लोकतंत्र के ख़िलाफ़ ।।
कर दी गयी चीथड़े, और हो गयी हवा।
हर क़तरा देह का, दिखाई दे रहा है साफ़।।

नोचा भी, कचोटा भी, कर दिया बेगिलाफ़ ।
किस को डालें हथकड़ी, करें किसे मुआफ़।।
ख़रगोश सा, अपनी ही धुन में दौड़ रहा है।
आकाश को ही ताड़ता हर शख्स, है जिराफ़।।

कुछ ने लिखा लहू से, उसके तन पे क़ाफ़ गाफ़।
कुछ कर रहे हैं तमाशा,कि मिल सके इंसाफ़।।
कुछ पहन के दस्ताने, चुन रहे हैं बोटियाँ।
कि डाल, नए साल में पका सकें पिलाफ़।।

क्या जाग सकेगा कभी, क्या छोड़ेगा लिहाफ़।
आज़ाद दे सकेंगे क्या, आज़ादी को इंसाफ़ ।।
जो हो गया, वो मेरे घर का मुआमला नहीं।
वो मैं ही हूँ जो सो रहा हूँ ओढ़ के गिलाफ़ ।।

मैंने ही छेड़ी जंग है यह अपने ही ख़िलाफ़।।