Thursday, June 20, 2013

Bahut ho chuka



बहुत हो चुका ये रूठना और मनाना
बहुत हुआ है तुमपे हक़ अपना जताना
बहुत जी चुकी तुम्हारे साए में छुपके
बहुत हो चुका पल पल ख़ुद को रुलाना

बहुत हो चुका पागल दिल का लगाना
हुआ बहुत है इश्क़ में यूँ ख़ुद को भुलाना
जिया जाए कैसे यूँ ख़ुद को भुला कर
मुनासिब नहीं अब यूँ ख़ुद को सताना

बहुत हो चुका तुम पे आंसू बहाना
अभी सूखी आँखें, अभी हमने जाना
जो बनकर खड़े हैं किनारा-ए-दरिया
उन्हीं को लुभाता है कश्ती का डूब जाना

हथेलियों पे दिल का, अब बस हुआ उठाना
और बस हुआ है तेरी ठोकरों से ज़ख्म खाना
बहुत हो चुकी हैं उफ़ ज़िल्लतें तुम्हारी
अब चूर हो चुका है टूट कर यह फ़साना

हमसे निगाह चुरा कर ग़ैरों से मिलाना 
शिकवा जताना हमपे, ग़ैर से मुस्कुराना
मैं ख़ूब बन चुकी हूँ तमाशा ज़माने भर में
क्या ख़ूब रंग लाया है वफाओं का अफ़साना

Tuesday, January 1, 2013

ख़िलाफ़।।




सोया हुआ है देर से, अब ओढ़ ले लिहाफ़ ।
ये युद्ध् लोक का है, लोकतंत्र के ख़िलाफ़ ।।
कर दी गयी चीथड़े, और हो गयी हवा।
हर क़तरा देह का, दिखाई दे रहा है साफ़।।

नोचा भी, कचोटा भी, कर दिया बेगिलाफ़ ।
किस को डालें हथकड़ी, करें किसे मुआफ़।।
ख़रगोश सा, अपनी ही धुन में दौड़ रहा है।
आकाश को ही ताड़ता हर शख्स, है जिराफ़।।

कुछ ने लिखा लहू से, उसके तन पे क़ाफ़ गाफ़।
कुछ कर रहे हैं तमाशा,कि मिल सके इंसाफ़।।
कुछ पहन के दस्ताने, चुन रहे हैं बोटियाँ।
कि डाल, नए साल में पका सकें पिलाफ़।।

क्या जाग सकेगा कभी, क्या छोड़ेगा लिहाफ़।
आज़ाद दे सकेंगे क्या, आज़ादी को इंसाफ़ ।।
जो हो गया, वो मेरे घर का मुआमला नहीं।
वो मैं ही हूँ जो सो रहा हूँ ओढ़ के गिलाफ़ ।।

मैंने ही छेड़ी जंग है यह अपने ही ख़िलाफ़।।